छ: मिनी रचनाएँ डा० शिबन कृष्ण रेणा | |
एक आदमी घर लौट रहा था। रास्ते में गाड़ी खराब हो गयी। रात काफी हो चुकी थी । एकदम घना अंधेरा था।मोबाइल का नेटवर्क भी उपलब्ध नहीं था। ना कोई आगे ना कोई पीछे। उसने गाड़ी साइड में लगा दी और लिफ्ट के लिये किसी गाड़ी का इंतेजार करने लगा। काफी देर बाद उसने देखा कि एक गाड़ी बहुत धीमे-धीमे उसकी ओर बढ रही थी।उसकी जान में जान आयी। उसने गाड़ी रोकने के लिये हाथ दिया।गाड़ी धीरे-धीरे,रुक-रुक कर उसके पास आयी।उसने गेट खोला और झट से उसमें बैठ गया।लेकिन अंदर बैठकर उसके होश उड़ गये।गला सूखने लगा। आँखे खुली की खुली रह गयी । दिल जोर-जोर से धड़कने लगी। उसने देखा कि ड्राइविंग सीट पर कोई नहीं था।गाड़ी अपने आप चल रही थी । एक तो रात का अंधेरा ऊपर से यह खौफनाक दृश्य।उसको समझ नहीं आ रहा था अब करे तो क्या करे। बाहर निकले या कि अंदर ही बैठा रहे। उसने हनुमान-चालीसा पढना शुरू कर दिया और अंदर बैठे रहने में ही भलाई समझी । गाड़ी धीरे-धीरे और रूक-रूक कर आगे बढती जा रही थी। तभी सामने पेट्रोल पंप नजर आया । गाड़ी वहाँ जाकर रूक गयी ।उसने राहत की साँस ली और तुरंत गाड़ी से उतर गया । पानी पिया । इतने में उसने देखा एक आदमी गाड़ी की ड्राइविंग सीट पर बैठने के लिये जा रहा था।वह दौड़ते हुये उसके पास पहुंचा और उससे कहा "इस गाड़ी में मत बैठो ।मैं इसी में बैठकर आया हूँ । इसमें भूत है" । उस आदमी ने उसके गाल पर झन्नाटेदार थप्पड़ जड़ा और कहा: “अबे गधे! तो क्या तूबैठा था रे इसमें? तभी मैं भी सोचूँ गाड़ी एकदम से भारी कैसी हो गयी?यह मेरी ही गाड़ी है। पेट्रोल खत्म हो गया था सो पाँच किलोमीटर से धक्का मारते हुये ला रहा हूँ ।“ बात सत्तर के दशक की है। मैं आरआर कॉलेज,अलवर में पढाता था और हमारी तनख्वाहें सिंडिकेट बैंक में जमा होती थीं। एक दिन बैंक के वरिष्ठ कर्मचारी साहब मुझे मार्किट में मिले और कहने लगे कल आप बैंक पधारना,आपसे कोई बात करनी है। अगले दिन मैं उनसे मिला।बड़े आदरभाव के साथ वे मुझे अंदर अपने कमरे में ले गए,चाय मंगवाई आदि।बात को आगे बढ़ते हुए उन्होंने मुझ से पूछा:' सर,आपने कभी सौ रुपये की एफ-डी पांच साल के लिए कराई थी क्या?' मैं हैरान। 'भई, सौ की एफ-डी पांच साल के लिए भला कौन कराएगा?मिलेगा क्या?दो सौ रुपये मात्र।'मैं ने तुरंत उत्तर दिया। 'यही तो हम लोग भी यहां बैंक में सोच रहे थे कि प्रोफेसर साहब को यह क्या सूझी जो सौ की एफ-डी करवाई। 'वे बोले। मैं ने उन महाशय से अनुरोध किया कि वे मेरे कागज़ निकलें जिनके आधार पर मेरी एफ-डी बनी थी। कागज़ निकाले गए और पाया गया कि मेरा निवेदन एफ-डी के लिए नहीं रेकररिंग डिपाजिट के लिए था।मगर गलती से बैंक ने मेरे निवेदन को एफ-डी खोलने का प्रस्ताव समझा था।कहने का मतलब यह है कि बड़ी पूंजी ही बड़ी पूंजी में बदल जाती है जबकि छोटी छोटी ही रहती है। एक सौ रुपये पांच साल बाद दो सौ हो जाते जबकि दो लाख चार लाख बन जाते।पैसे को पैसा खींचता है। अक्सर कुछ समझदार लोग यह तर्क देते हैं कि इतिहास में जो अनुचित घट गया,उसे याद न कर भुला देना चाहिए। सभ्यता का विकास तभी होगा अन्यथा हम पुरानी दलीलों में ही उलझे रहेंगे। ठीक है।मगर कुछ यादें या दलीलें ऐसी होती हैं जिन्हें भूलकर भी भुलाया नहीं जा सकता।चीन के थियानमेन स्क्वायर पर सैंकड़ों छात्रों को जो मौत के घाट उतारा गया,क्या उनके अभिभावक इस नृशंसतापूर्ण घटना को कभी भूल सकेंगे?(खून के घूँट पीकर रह जाना अलग बात है।) गुरु तेगबहादुर की एक मुगल शासक ने सरे आम गर्दन कटवा दी थी, क्या सिख भाई इतिहास की इस लोमहर्षक घटना को सहज ही भूल जाएंगे। 84 के सिख दंगे आदि ---। मेरे सहपाठी रहे मित्र लस्सा कौल, निदेशक,दूरदर्शन श्रीनगर की जिस निर्ममता के साथ उनके आफिस के बाहर जेहादियों ने हत्या कर दी थी,क्या उसके बूढ़े माँबाप इस बात को भूलेंगे?उदाहरण कई हैं।जिनपर बीतती है वही ताउम्र विपत्ति का दंश महसूसते रहते हैं,शेष तो मात्र उपदेश देते हैं या फिर 'कविताएं' लिखते हैं। मेरी पीढ़ी के लोग कश्मीरी समझ सकते हैं और समय पड़ने पर बोल भी लेते हैं।मैं तो लिखना पढ़ना भी जानता हूँ।मगर हमारे बच्चों को लिखना/पढ़ना तो दूर बोलना भी मुश्किल पड़ रहा है।समझ भले ही लें।दरअसल,भाषा परस्पर व्यवहार और अनुकूल परिवेश मिलने पर परवान चढ़ती है। मेरा अधिकांश समय राजस्थान जैसे हिंदी पदेश में बीता।बच्चे भी यहीं हुए। मेरी दोनों बेटियां बढियां हिंदी बोलती हैं। छोटी बेटी जो अभी मालदीव में है,अपने कॉलेज के दिनों में हिंदी डिबेट में हमेशा प्रथम आती थी। मैं ने अनुभव किया है कि जब भी मैं अपने लोगों/संबंधियों से मिलने के लिए जम्मू जाता हूँ तो कश्मीरी मैं अनायास ही धाराप्रवाह बोलने लग जाता हूँ,दक्षिण में जाता हूँ तो अंग्रेज़ी फर्राटे से बोलने लग जाता हूँ और राजस्थान लौटने पर वापस हिंदी की ओर लौट आता हूँ।सौ बात की एक बात।भाषा को फलने फूलने के लिए उचित 'माहौल' चाहिए। एक बात याद आ रही है। वर्षों से कबाड़ी-नुमा एक बंदा हमारे घर पर आता रहा है और पुरानी वस्तुएं जैसे:मिक्सी,प्रेस,टीवी, रेडियो,मोबाइल,साईकल,कुकर,घड़ी आदि औने पौने दाम पर खरीद कर ले जाता है। हम भी सोचते हैं घर पर वर्षों से पड़ा अटाला साफ हो गया। एक दिन मैंने इस शख्स से पूछा, 'भई इन बेकार वस्तुओं का क्या करते हो?' उसने बड़ा ही सटीक उत्तर दिया: 'शहर में जगह जगह से इस तरह का समान इकट्ठा कर मैं दिल्ली/मंगोलपुरी ले जाता हूँ। वहां मैं ने दो तीन कारीगर बिठा रखे हैं जो इन पुरानी वस्तुओं को सुधारते हैं और ये चीजें लगभग नई हो जाती हैं।सैकंड हैंड सामान के रूप में ये आइटम खूब बिकते हैं। 'रोज़गार जुटाने का कितना जुगाडू तरीका है यह! हमारी सेना कश्मीर में सीमाओं की रक्षा तो कर ही रही है, घाटी में व्याप्त उपद्रवियों द्वारा जारी भीतरी हिंसा को भी नियंत्रित करती है। हालांकि यह काम स्थानीय पुलिस का है। पिछले दिनों शोपियां में पत्थरबाजों के उग्र और अतीव हिंसक प्रदर्शन को नियंत्रित करने के लिये सेना को आत्मरक्षा में गोली चलानी पड़ी जिसमें दो पत्थरबाजों को अपनी जान गंवानी पड़ी। विडम्बना देखिये स्थानीय पुलिस ने इस घटना को लेकर सेना पर ही एफआईआर दर्ज कराई है।विश्व के किसी भी देश में शायद ऐसा नहीं होता होगा।कौन नहीं जानता कि कश्मीर में सेना न हो तो घाटी में अगले ही पल पाकिस्तान का कब्ज़ा हो जाय।कश्मीर के बड़े-बड़े नेता जो हमारी सेना की हमेशा बुराई करते है,सेना की बदौलत ही वहां दिन-दिन निकाल रहे हैं।सेना को बुरा भला भी कहते हैं और सेना से सुरक्षा भी पाते हैं। इन अहसान फरामोश और अवसरवादी नेताओं की सुरक्षा तुरन्त हटाई जानी चाहिए।तब इन्हें सेना की वास्तविक उपयोगिता समझ में आएगी।जानकारों का यह कहना शतप्रतिशत सत्य है कि कश्मीर में सेना न हो तो पाकिस्तान कश्मीर को कब्रिस्तान बना दे। | |
*Raina,Shiben Krishen MA(Hindi&English),PhD;Professor/Writer; Born: April22,1942 Srinagar(J&K); Education: J&K,Rajasthan and Kurukshetra Univs;Head Hindi Dept.Govt Postgraduate College, Alwar;Sought voluntary retirement from Principalship and joined Indian Institute of Advanced Study,Rashtrapati Nivas, Shimla as Fellow to work on Problems of Translation(1999-2001). Publications: 14 books including Kashmiri Bhasha Aur Sahitya(1972), Kashmiri Sahitya Ki Naveentam Pravrittiyan(1973), Kashmiri Ramayan:Ramavtarcharit(1975 tr.from Kashmiri into Hindi), Lal Ded/Habbakhatoon-monographs tr.from English(1980), Shair-e-Kashmir Mehjoor(tr.1989); Ek Daur(Novel tr.1980) Kashmiri Kavyitriyan Aur unka Rachna Sansar(1996 crit); Maun Sambashan(Short stories 1999); Awards: Bihar Rajya Bhasha Vibagh, Patna 1983; Central Hindi Directorate 1972, Sauhard Samman 1990; Rajasthan Sahitya Academy Translation Award (1998) Bhartiya Anuvad Parishad Award(1999); Titles conferred:Sahityashri,Sahitya Vageesh, Alwar Gaurav, Anuvadshri etc. Address: 2/537(HIG) Aravali Vihar,Alwar 301001, India | |