सन्नाटा जब मैंने यह सुना कि महीउद्दीन की पत्नी अब इस संसार में नहीं रही तो न जाने क्यों एक लमहे के लिए मैंने राहत की सांस ली, किन्तु दूसरे ही क्षण मेरे दिल में एक हूक-सी उठी । हाजरा की भोली-भाली सूरत मेरे अाँखों के आगे नाचने लगी। उसकी मूरत, उसकी घनी भौंहें ऐऔर उनके नीचे दो मोटी-मोटी अाँखें’! वह छरहरे बदन की एक सलोनी लड़की थी। अगरचे- वह बहुत ज्यादा सुन्दर नहीं थी, मगर उसमें कशिश गजब की थी और यही वजह थी कि शादी से पहले महीउद्दीन हाजरा पर हजार जान से फ़िदा था । शादी से पहले और शादी के बाद मैंने दोनों की जिन्दगी का निकट से अध्ययन किया था । हाजरा मेरे ही मुहल्ले की लड़की थी। बचपन में हम सब एक-साथ 'काठ चाले बम' खेल खेला करते थे। महीउद्दीन से भी मेरा बचपन का दोस्ताना था। जब हाजरा और महीउद्दीन की शादी का जिक्र चला तो मुझे यकीन था कि यह शादी सफल दाम्पत्य-जीवन की अच्छी मिसाल साबित होगी। लेकिन मेरा सोचना गलत निकला । शादी के बाद पति-पत्नी में परस्पर विश्वास, समर्पण और त्याग की जो भावनाएँ उभरकर आनी चाहिए वे इस जोड़े में मैंने बिल्कुल नहीं पाई। इनमें आए दिन अनबन रहती और झगड़े होते। हाजरा अक्सर सास और ननद की जली-कटी सुनने के बाद मायके चली आती और महीउद्दीन दूसरे ही दिन उसे जबर्दस्ती अपने घर वापस ले आता। । मुझे महीउद्दीन की यही बेसब्री पसन्द नहीं थी। मैंने कई बार कहा भी-‘भई, जब तुम दोनों के मिजाज आपस में मिलते नहीं हैं तो तुम उसे तलाक क्यों नहीं देते ?' वह मेरी बात पर हँस पड़ता और कहतातो क्या तुम्हारे खयाल से मुझे हाजरा से मुहब्बत नहीं है? मैं तो मुहब्बत में अपने आप को खत्म कर देने का क़ायल हूँ। मगर मैं यह भी चाहता हूँ कि जिस के लिए मैं मिट जाऊँ वह भी मेरे जज्बात की क़द्र करे ।’ भाई मेरे, तुम्हें कैसे यकीन दिलाऊँ, यह भी तुम्हें उतना न चाहती होंगी ईजतना मैं उसे चाहता हूँ।' इस बात पर मैं जोर से हँस दिया। मेरी पत्नी शरमा गई। कुछ देर रुककर महीउद्दीन ने फिर बात का अंदाज बदला और कहा-‘खुदा की कसम, मैं तो उसे पूजना चाहता हूँ। जिस तरह तुम लोग देवी-मंदिर में ईकसी मूरत को पूजते हो।' मेरी पत्नी कुछ मैले कपड़े समेट रही थी। कपड़ों की गठरी बगल में दबाकर बह दरवाजे के पास पहुँचकर बोली-'अच्छा तो तुम बीवी नहीं, पत्थर की मूरत चाहते हो।' शोभा का यह जवाब सुनकर मैं खुद सन्नाटे में आ गया। महीउद्दीन ने इसका क्या मतलब लिया, मैं कह नहीं सकता क्योंकि इस बातचीत के बाद वह ज्यादा देर तक मेरे यहाँ नहीं ठहरा। कोट का कालर कनपटियों तक खींचते हुए वह तुरत-फुरत मेरे घर से चला गया । अब चूंकि मैंने सुना हाजरा मर गई, मुझे राहत-सी मिल गई कि अच्छा हुआ इस झगड़े का अन्त हो गया। अब महीउद्दीन को नये सिरे से अपनी जिन्दगी बिताने का मौक़ा मिल जाएगा। हाजरा के निधन के दूसरे दिन ही मैं महीउद्दीन के घर गया। वह घर पर नहीं था। मैंने उसकी माँ से पूछा तो उसने रूखा-सा जवाब दिया। उसकी बहन से पूछा तो उसने भी कोई खास जवाब नहीं दिया, बस इतना कहा कि जाकर मजार पर देखिए उसे। 'मजार पर ! मगर, अब वहाँ क्या लेने गया है ?” मैंने हैरानी जाहिर की । ‘यह तो मुझे मालूम नहीं,” उसकी माँ बोली और सिसकियाँ भरने लगी । मैंने हमदर्दी-भरे लहजे में पूछा-‘मगर आप रो क्यों रही हैं ?' 'क्य। करूं बेटा, इस मुए को इसी दिन के लिए जीना था, महीउद्दीन की बहन माँ की बात काटकर बीच में बोल पड़ी-'कल हाजरा को दफ़ना कर जब लोग वापस आए तो महीउद्दीन ने मार-मारकर माँ का भुरकुस निकाल दिया ।' 'अरे, क्या कहती हो तुम ! ऐसा पागलपन उसने किया ? मगर क्यों ?” मैंने पूछा। 'मुझे क्या मालूम,” महीउद्दीन की माँ बोली-‘अब तुम ही सोचो बेटा, मैं क्या उसकी दुश्मन थी। खैर मरने वाली तो मर गई पर इसे तो अपनी जिन्दगी बसानी है।' महीउद्दीन ने जब भी हाजरा के बारे में मुझ से कोई बात की तो हमेशा घुटन और परेशानियों का ही वर्णन किया। वह जोर देकर कहता -‘भई, अगर सास और ननद के साथ इसकी बनती नहीं है तो इसका बदलावह मुझ से क्यों लेती है?" मैं रूखा-सा जवाब देता-'भाँई, क्यों अपनी जान मुसीबत में डाले हुए हो। तुम्हारी बिरादरी में तो ऐसा होता रहता है, शादियाँ होती हैं, टूटती हैं, फिर होती हैं’। हम हिन्दुओं में ऐसा नहीं होता। हम लोग तो चाहते हुए भी ऐसा नहीं कर सकते। समाज और बिरादरी हमें इसकी इजाजत नहीं देते । शायद ही ऐसे एक-दो उदाहरण हों, वन अपने भाग्य में बुरी-भली जैसी भी बीवी हिस्से में आती है, उसी से निबाहनी पड़ती है।” मगर मेरे इस विचार से वह कभी संतुष्ट न हो सका। वह पलटकर जवाब देता- 'तुम्हारी सोच में खराबी है, मेरे भाई। हाजरा तो मुझे , अपनी जान से भी प्यारी है, लेकिन है जिद्दी और लापरवाह। उसकी यही लापरवाही मेरी उमंगों को कुचल देती है, नहीं तो उसमें और कोई कमी नहीं है।” महीउद्दीन का यह विचित्र व्यवहार मेरी समझ में बिल्कुल नहीं आ रहा था । वह अपनी बीवी से लड़ता था, झगड़ता था । कई-कई दिनों तक उससे बात तक नहीं करता था। मगर फिर भी उसे तलाक़ देकर अलग से जिन्दगी बसर करने का खयाल वह सहन नहीं कर सकता था । मेरे दिल में यह बात यकीन की हद तक घर कर चुकी थी कि महीउद्दीन यह सब नाटक कर रहा है, उसे हाजरा से कोई लगाव या मुहब्बत नहीं है, वह उससे उकता चुका है’। एक दिन मेरी पत्नी ने भी कुछ यही बात उसे कही- 'तुम लोग औरत को জন্ম पैरों की जूती भी नहीं समझते । तुम लोगों की जिन्दगी में क्या प्यार नीम की कोई चीज है ही नहीं ?” 'क्या कहती हो भाभी?” महीउद्दीन ने गमगीन होकर जवाब दिया था-‘तुम और हममें कुछ ज्यादा फ़र्क नहीं। तुम गलत समझती हो।’’ मैं तो हाजरा की पूजा करता हूँ’।' 'क्यों झूठ बोलते हो ! जैसे मैं कुछ नहीं जानती ? मेरी पत्नी ने मुंह बनाकर जवाब दिया । यह सवाल मेरे दिमाग में बराबर घूमता रहा कि महीउद्दीन की माँ से पूछू कि हाजरा मरी कैसे ? मगर पूछने की हिम्मत नहीं हुई। मन ही मन मुझे महीउद्दीन पर गुस्सा आ रहा था । भला इस बात को भी कोई मानेगा क्या कि महीउद्दीन अपनी बीवी को कितना चाहता था कि अब उसकी जुदाई में पागल हुआ जन स्हा है। मुहल्ले वाले अगर उसकी पागलपन की हरकतें देख कुछ कहते भी होंगे तो गलत नहीं कहते होंगे । न चाहते हुए भी मैं उनके खानदानी मजार पर गया। महोउद्दीन वहाँ पर एक कब्र के पास जमीन पर लकीरें खींच रहा था। कब्र पर फैली हुई ताजी मिट्टी में सोन्धी-सोन्धी खुशबू आ रही थी। मुझे देखकर वह देर तक मेरी आँखों में घूरता रहा और बड़े ही दर्दीले लहजे में बोला-'यार, हाजरा मुझे छोड़कर चली गई।' यह कहकर वह फूटफूटकर रो दिया । महीउद्दीन की रोती-बिसूरती सूरत देख मेरा दिल जरा भी नहीं पसीजा। मुझे तो उसके इस अन्दाज में बनावट का अहसास होने लगा। कोई और मौका होता तो शायद मेरे मुँह से हँसी का फव्वारा फूट पड़ता। लेकिन मैंने जब्त से काम लिया और कहा-'जो होना था, हो गया । अब रोने-धोने से क्या फ़ायदा ?' 'यह तुम कहते हो ! मेरी तो सारी दुनिया लुट गई। मुझे उसके बगैर हर चीज काटने को दौड़ती है। कुछ भी अच्छा नहीं लगता," उसने कहा और सूनी नजरों से मुझे ताकने लगा । 'शुरू-शुरू में ऐसा ही लगता है।" मैंने ढांढस बधाते हुए कहा और साथ में ऐसी बात भी कह दी जो शायद मुझे कहनी नहीं चाहिए थी । मैंने कहा- 'तुम्हारी बेचैनी की वजह हाजरा की मौत नहीं बल्कि तन्हाई है। तुम्हें अब दूसरी शादी कर लेनी चाहिए।' 'क्या बकवास करते हो ?" वह मुझे जैसे काटने को दौड़ पड़ा । 'नाराज क्यों होते हो ?” मैंने संभलकर उत्तर दिया, '-खुदा ने तुम्हारी सुन ली। हाजरा हमेशा के लिए मीठी नींद सो गई’। अब काहे का डर ! तुम तो रोज-रोज के झगड़े से तंग आ गए थे।' 'नहीं, नहीं मैं तंग नहीं आया था। मैं तो उसकी मुहब्बत का भूखा था। उसके बगैर अब मेरी जिन्दगी में कुछ भी बाकी नहीं रहा ।' 'जज्बात में बहकने की कोशिश मत करो, मेरे दोस्त। मैंने दिलासा देते हुए कहा। r 'यह खाली-खोली जज्बात नहीं, उसकी आवाज भर्रा गई, ‘मैंने उसे समझने में गलती की और उसने मुझ को । अब मैं जान गया कि घर के झंझट में पड़कर हाजरा को किसी बात की सुध ही नहीं रहती थी। कभी अन्दाज में सिर हिलाया । उसकी भौंहें तन गई और वह मुझे जबर्दस्ती रोकते हुए बोला-'तुम उसके दोस्त हो ?' मैंने फिर 'हाँ' कह दी तो उसने झुरियों से भरे अपने खुरदरे हाथ " को मेरे कन्धे पर रखकर कहा‘किसी नई लड़की पर नजर होगी उसकी,” कहकर वह हँस पड़ा। मैंने पलटकर जवाब दिया-"आप गलत समझते हैं। वह तो दूसरी शादी के नाम से भी बेजार है ।” 'यही तो उसकी मक्कारी है। कमबख्त ने एक मेहनती लड़की का खन कर दिया । अब इस बात को दबाने के लिए यह नाटक कर रहा है।' , 'आप इसे नाटक कह रहे हैं?' मैंने हैरानी जाहिर की। 'और नहीं तो क्या ? मैंने दुनिया देखी है लड़के ! अगर यह नाटक न करे तो भला इसे दूसरी बीवी कैसे मिल सकेगी ? 'क्यों नहीं मिल सकती, मैंने उसकी बात को काटने के अन्दाज में कहा-'कमाऊ लड़का है, जवान है। कोई भिखमंगा तो है नहीं।' 'कुछ भी हो, उस बूढ़े ने आत्मविश्वास के साथ जवाब दिया - 'अब कोई आँख मूँदकर अपनी बेटी को कुएँ में धकेल दे, तो बात अलग है। मगर फिर भी लड़की वाले यह तो मालूम करेंगे ही कि हाजरा मरी कैसे ? खाँसी बढ़ जाने से भला कोई मरता है?" इस बूढ़े की बातों ने महीउद्दीन के बारे में मेरी राय और पुख्ता कर दी। मैं सोचने लगा भला खाँसी भी इतनी खतरनाक बीमारी हो सकती है कि किसी के लिए जानलेवा साबित हो ! व गया और मैं सुनता गया। रोज हमारे नल पर पानी भरने आती थी। रोज मैंने उसे खाँसते देखा। उसकी अखेिं अाँसुओं में डूबी देखी और इस जानवर ने कभी उसकी परवाह तक न की।’और तुम इसके दोस्त हो !” उसके आखिरी शब्द इतने हिकारत भरे थे कि मानो उसने मेरे ऊपर घड़ों पानी उडेला हो। मैं अब वहाँ से भागना चाहता था, मगर भाग न सका। मेरे क़दम रुक-रुककर उठने लगे जैसे सामने गहरे गड्ढे हों और मुझे बचबचकर चलना पड़ रहा हो । حم उस बूढ़े की बातों का मुझ पर इतना असर हुआ कि महीउद्दीन की पर की सारी बातें मेरे दिमाग से उतर गई और मैं इस ताक में पेड़ गया कि सचमुच मामूली खाँसीं किसी की मौत का कारण नहीं हो सकती। हाजरा किन हालात में मरी, यह मुझे उसके मायके वालों से भी मालूम न हो सका। हाँ, उस दिन के बाद मैं महीउद्दीन से नहीं मिला। एक दिन उसकी माँ मेरे घर आई और शिकायत की कि मैंने अपने दोस्त को भूला दिया । मैंने कहा-‘नहीं, ऐसी बात नहीं है। दरअसल, मैं काम में इतना जुटा रहा कि फुर्सत ही न मिली उससे मिलने की ’।' महीउद्दीन की माँ ने अपने काले बुरके की जेब में हाथ डालकर एक तस्वीर निकाली और मेरे हाथ में पकड़ाते हुए सवाल किया-‘कैसी है लड़की ?' 'सूरत से तो भली मालूम पड़ती है," मैंने जवाब दिया और चुप हो गया । 'हाँ, बड़ी खूबसूरत है, वह गर्व के साथ बोली-‘यह तो सिर्फ फोटो है। अगर आदमी उसे देखे तो देखता ही रह जाए। महीउद्दीन के लिए मैंने इस लड़की के माँ-बाप से बात पक्की कर दी है।' 'महीउद्दीन ने यह तस्वीर देखी ?” मैंने पूछा। उसने भी देख ली, मगर कोई खास जवाब नहीं दिया । कहने लगा अब तो मेरी शादी कब्र से ही होगी’। अब तुम ही बताओ बेटा, ऐसी बातें कब तक चलगी ?' मेरी पत्नी शोभा नाहक उसकी हाँ में हाँ मिलाती रही, मगर मैं सब E. सुनता रहा। मेरी उदासीनता भाँपकर वह शोभा से कहने 'अब तुम ही बताओ, बहू, हाजरा को मरे हफ्तों हो गए। कई घराने जोर दे रहे हैं। सोचती हूँ बहू जल्दी से घर में आए। महीउद्दीन का जी भी बहल जाएगा और मुझे भी इस बुढ़ापे में आराम मिल जाएगा। हाजरा घर आई तो न जिन्दगी में आराम पाया और न औरों को यह लगा कि अपने घर में भी बहू आ गई है। दूसरों को देखती हूँ तो दिल रो उठता है। उनके यहाँ बह आती है तो मानो सोने से घर भर देती है। मेरा तो बसा-बसाया घर उजड़ गया । दोनों में निभ न सकी’ खुदा साहब ने मेरी दुआ सुन ली’।' यह सुनकर मैं बहुत तिलमिलाया, मगर कुछ भी कह न सका। शोभा भी जैसे अंगारों पर लोट रही थी। इस बुढ़िया के लिए मेरे दिल में बड़ी इज्जत थी। मुझे इसमें पहले माँ का जो रूप नजर आ रहा था, वह अब कहीं न था। अब मुझ यह आम किस्म की दुनियावी औरत नजर आने लगी’। जब उसने कहा-'बेटा, अब तुम ही उसे समझाओ। मानेगा तो वह तुम्हारी ही, तो मैंने जवाब दिया-‘ठीक है, कल नहीं तो परसों मैं जरूर आऊँगा।' मैं परसों भी नहीं गया। कई दिन और गुजर गए। मैंने दिल में निश्चय कर लिया कि अब महीउद्दीन की सूरत भी न देखूंगा। माना कि हाजरा सुघड़ बहू न थी। माना कि वह महीउद्दीन के जज्बात की कद्र न कर पाई। माना कि उसमें और भी कुछ नुक्स थे’। मगर वह इंसान तो थी। क्या वह बाजार की एक मामूली-सी चीज थी कि पसन्द आई तो रख ली वन फेंक दी सड़क पर ! मुझे उसकी एक-एक बात याद आने लगी। एक दिन वह मायके चली आई थी। मैंने उसे अपनी गली में से गुजरते हुए देखा और पूछा-'हाजरा, तुम फिर मायके चली आई ?' ‘फिर क्या करूं भाई साहब ! वहाँ रहूँ तो वहाँ भी चैन नहीं। यहाँ रहूँ तो यहाँ भी रहने नहीं देते हैं। मैं तो तंग आ चुकी हूँ इस जिन्दगी से’।' यह कहते हुए उसे खाँसी का दौरा पड़ा था। मैं उसे सहारा देकर घर के दरवाजे तक ले गया और अनजान बनते हुए पूछा था'आखिर झगड़े की कोई वजह भी तो हो ?” ‘मालूम नहीं वह चाहते क्या हैं? एक तो कोल्हू के बैल की तरह सारा दिन घर के काम में खटती हूँ, ऊपर से तुम्हारे मेहरबान दोस्त की झिड़कियाँ भी सुर्नू। हमेशा यही कहते रहते हैं कि मैं पहले की तरह उनसे प्यार नहीं करती हूँ ! भला बताओ, प्यार और कैसे किया जाता है ? सुबह से लेकर शाम तक उसके घर मैं नौकरों से भी बदतर जिन्दगी गुजार रही हूँ। सास और ननद की डांट-फटकार सुनती हूँ। इस पर भी वह मुझसे मुहब्बत का सबूत माँगते हैं। मैं तो, भाई साहब, इम्तिहान दे-देकर हार गई। अब मुझसे बदश्त नहीं होता ।' हाजरा ने शायद सच्ची बात कही थी। उससे बदश्त नहीं हो सका और वह इस दुनिया से उठ गई। अब उसकी जगह दूसरी हाजरा की तलाश हो रही थी । - ७० इन दिनों शादियों की बड़ी धूम-धाम थी । किसी-किसी मुहल्ले में सुहाग-गीत सुनने में आ रहे थे। जब मैं दफ्तर से लौटा तो अपने घर के दरवाजे पर ताला लगा पाया । पड़ौस वालों ने खबर दी कि शोभा और माँ दोनों महीउद्दीन के घर गए हैं। मुझे बहुत गुस्सा आया। मैंने माँ और पत्नी दोनों से कह रखा था । कि महीउद्दीन खुद भी अगर शादी का न्योता देने आए, तब भी न जाना। लेकिन उन्होंने मेरा कहा नहीं माना। मैंने दिल में फ़ैसला किया कि अभी महीउद्दीन के घर जाकर दोनों माँ और शोभा को भरी मजलिस से जबर्दस्ती उठाकर वापस ले आऊँगा। महीउद्दीन रोकना भी चाहेगा, तब भी नहीं रुकूंगा। एक दिन उसकी माँ मुझे रास्ते में मिली थी और मैंनज रें बचाकर सरक गया था । होंठ भींचता हुआ मैं महीउद्दीन के घर की तरफ चल पड़ा। मेरी आशा के विपरीत वहाँ सन्नाटा था । न जाने कहाँ-कहाँ से दर्जनों कुत्ते अाँगन में आकर जमा हो गए। उनमें से कई थूथन को जभीन पर टिकाए। ऊँघ-से रहे थे । आस-पास के घरों में खामोशी थी। महीउद्दीन के मकान के निचले कमरे में औरतों की भीड़ थी । खिड़कियाँ खुली थीं, मगर अंधेरे में कोई भी सूरत अच्छी तरह पहचानी न जाती थी। मैं घबरायासा मकान के अन्दर चला गया । शोभा ने मुझे आते हुए देखलिया था। वह कमरे से बाहर निकल आई नंगे पाँव ! उसकी अाँखें गीली थीं’। मेरा दिल धक से रह गया । 'क्या बात है ?” मैंने मरी हुई आवाज में पूछा। 'तुमने सुना नहीं? महीउद्दीन मर गया।' वह बोली । एक लमहे के लिए जैसे मेरी जान ही निकल गई ! मुझसे और कुछ भी सुना न गया। मैं भागता-भागता मजार पर जा पहुँचा। वहाँ पर बहुत सारे लोग सिर झुकाए बैठे थे। महीउद्दीन की मैयत क़ब्र में उतारी जा चुकी थी। कब्र पर ताजा मिट्टी बेतरतीबी से पड़ी थी। मुल्ला कुछ पढ़ रहा था। मैंने मिट्टी के जो ढेले तोड़-तोड़कर उसकी कब्र पर फैला दिए. उनमें मेरे अाँसू भी मिले हुए थे । । |
बन्सी निर्दोष जन्म 1 मई, 1930 को श्रीनगर (कश्मीर) के बड़ीयार मुहल्ले में। 1951 तक उर्दू में लिखते रहे, तत्पश्चात् कश्मीरी की ओर प्रवृत हुए। कश्मीरी में इनके तीन कहानी-संग्रह तथा दो उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। बहुचर्चित उपन्यास 'अख दोर' का हिन्दी अनुवाद 'एक दौर’ शीर्षक से हिन्दी विकासपीठ, मेरठ से प्रकाशित। रेडियो के लिए लिखे नाटकों की संख्या सौ से अधिक। प्रकाशित पुस्तकें हैं-‘अख दोर', 'मुकजार' (तलाक), 'गिरदार्ब' (भंवर), 'बाल मरोयो' (मैं बाला मर जाऊँ), 'आदम छुयिथय बदनाम (आदमी यों ही बदनाम है)। (कहानी संग्रह), 'सुबह सादिक', 'अमर कहानी' (जीवनियां) ‘गुरु गोविन्दसिंह', 'कोमुक शायर' (कौम का शायर), आदि। ‘एक कहानी' सीरियल के अन्तर्गत दूरदर्शन के राष्ट्रीय प्रसारण कार्यक्रम में 'मौत’ कहानी का प्रसारण। 'दान थेरे' (अनार की डाली), 'रिश्ते', 'गिरदाब’, 'तफतीश' आदि कहानियों पर टेली-फिल्में निर्मित। जम्मू व कश्मीर राज्य कल्चरल अकादमी द्वारा दो बार पुरस्कृत, बख्शी मेमोरियल ट्रस्ट द्वारा सम्मानित । कश्मीर से विस्थापित होकर जम्मू में स्वतंत्र लेखन और बाद में 21 अगस्त २००१ में स्वर्गवास । वर्तमान पता : 34 आदर्श नगर, बन तालाब, जम्मू (तवी) जे. एंड के । कश्मीरी कहानी-लेखन का जीवन-इतिहास लगभग 60 वर्ष पुराना है। अपनी विकास-यात्रा के दौरान कश्मीरी कहानी ने कई मंज़िलें तय कीं। ज़िन शलाका पुरुषों के हाथों कश्मीरी की यह लोकप्रिय विधा समुन्नत हुई, उनमें स्वर्गीय निर्दोष का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है ।निर्दोष की कथा-रचनाएं कश्मीरी जीवन और संस्कृति का दस्तावेज़ हैं । इन में मध्य्वार्गीय समाज की हसरतों और लाचारियों का परिवेश की प्रमाणिकता को केन्द्र में रखकर, जो सजीव वर्णन मिलता है, वह अन्यतम है। कश्मीरी परिवेश को ताज़गी और जीवंतता के साथ रूपायित करने में निर्दोष की क्षमताएं स्पृहणीय हैं। इसी से इन्हें 'कश्मीरियत का कुशल चितेरा' भी कहा जाता है । डॉ० शिबन कृष्ण रैणा ने बड़ी लगन् और निष्ठा से निर्दोष की कहानियों का हिन्दी में अनुवाद किया है। उन्हीं के प्रयास से हिन्दी जगत् के सामने ये सुन्दर कहानियां आ गयी हैं। दो भाषाओं के बीच भावनात्मक एकता को पुष्ट करने की दिशा में डॉ० शिबन कृष्ण रैणा का यह प्रयास प्रशंसनीय ही नहीं, अनुकरणीय भी है। |