प्रति वर्ष (ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष अष्टमी) पर विशेष कश्मीर का प्रसिद्ध तीर्थ : तुलमुल (क्षीर-भवानी) डॉ० शिबन कृष्ण रैणा | |
श्रीनगर (कश्मीर(के पूर्व में लगभग चौदह किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक छोटा-सा गांव बसा हुआ है तुलमुल| यहीं पर जगदम्बा माता क्षीर-भवानी का वह सुरम्य मंदिर/ तीर्थ है जो प्राचीनकाल से श्रद्धालुओं और भक्तजनों के लिए आस्था का केंद्र बन हुआ है | श्रीनगर से तुलमुल तीर्थ-स्थान तक जाने के लिए पहले के समय में प्राय: लोग तीन मार्गों का उपयोग करते रहे हैं | एक सड़क से, दूसरा वितस्ता या झेलम नदी से तथा तीसरा पैदल रास्ते से | आजकल अधिकांशतः लोग बस, मोटर कार, दुपहिये वाहनों आदि में बैठकर ही यह तीर्थ करते हैं| ‘तुल’ कश्मीरी में तूत को कहते हैं तथा ‘मुल’ पेड़’ या जड़ को | इस प्रकार ‘तुलमुल’ का अर्थ तूत का पेड़ हो जाता है | कहते हैं, जिस चश्में में इस समय जगदम्बा (महाराज्ञी) का वास समझा जाता है, वहाँ पर आज से कई सौ वर्ष पूर्व तूत का एक बड़ा पेड़ विद्यमान था तथा लोग चश्में में उसी पेड़ को महाराज्ञी का प्रतिरूप मानकर पूजा करते थे | इसीलिए इस तीर्थस्थान को ‘तुलमुल’ कहा जाता है| क्षीर भवानी तीर्थ के सम्बन्ध में मिथकों से जो जानकारी प्राप्त होती है, उसके अनुसार लंकापति रावण को अपूर्व शक्ति प्राप्त करने का वरदान जगदम्बा से ही प्राप्त हुआ था | किंतु जब रावण सीता का हरण कर रामचद्रजी के साथ युद्ध करने पर आमादा हो गये तो महाराज्ञी जगदम्बा रुष्ट हुई | इन्होंने हनुमान को तत्काल यह आदेश दिया कि वे इनको ‘कश्यपमर’/कश्मीर ले जाएँ क्योंकि रावण के पिता पुलस्त्य उस समय कश्मीर में ही रहा करते थे | हनुमान ने आदेश का पालन किया तथा कश्मीर के पश्चिम के एक दूरवर्ती गांव ‘मंजगांव’ में देवी की स्थापना की परन्तु यह स्थान देवी को भाया नहीं और बाद में हनुमान ने देवी की स्थापना ‘तुलमुल;’ गांव में की | यहाँ देवी का नाम ‘क्षीर-भवानी’ पड़ा क्योंकि इनका भोग केवल मिष्टान एवं क्षीर से ही होने लगा | कल्हणकृत राजतरंगिणी के अनुसार कश्मीर का प्रत्येक राजा इस तीर्थ स्थान पर जाकर जगदम्बा महाराज्ञी के प्रति अपनी श्रद्धा के फूल अर्पित करता था | किंवदन्ती यह भी है कि भगवान राम बनवास के दौरान कई वर्षों तक माता जगदम्बा देवी की पूजा करते रहे और बनवास के बाद हनुमान से कहा कि वह माता के लिए उनका मनपसंद स्थान तलाश करे|इस प्रकार माता ने कश्मीर का चयन किया और हनुमान ने उनकी स्थापना ‘तोला मोला’अथवा तुलमुल में की| देवी का वर्तमान जलकुण्ड ६० फुट लम्बा है | इसकी आकृति शारदा लिपि में लिखित ओंकार जैसी है | जलकुण्ड के जल का रंग बदलता रहता है जो इसकी रहस्यमयता/दिव्यता का प्रतीक है | इसमें प्राय: गुलाबी, दूधिया, हरा आदि रंग दिखायी देते हैं जो सुख-शान्ति तथा देश-कल्याण के सूचक माने जाते हैं | कला रंग अपशकुन माना जाता है | मंदिर के पुजारियों का विश्वास कि चश्मे का पानी अगर साफ़ हो तो सबके लिए अच्छा शगुन है और वह साल भी अच्छा बीतता है किन्तु अगर पानी गंदला या मटमैला हो तो कश्मीर-वासियों के लिए मुश्किलें, यात्राकष्ट और परेशानी का दुर्योग बनता है|कहा जाता है 1990 में चश्मे का पानी काला हो गया था, मानो उसमें धुआं मिलाया गया हो| तब कुछ ही महीनों के बाद पंडितों को घाटी छोड़ कर जाना पड़ा था| जलकुण्ड के बीच में जगदम्बा महाराज्ञी का एक छोटा-सा किन्तु भव्य मंदिर विद्यमान है | आज से डेढ़ सौ वर्ष पूर्व यहाँ कोई मंदिर नहीं था | वर्तमान मंदिर का निर्माण डोगरा शासकों के सत्प्रयास से हुआ है| यह मंदिर भारतीय वास्तुकला के आधार पर बनाया गया है | मंदिर का प्रवेश द्वार पूर्व की ओर है | कुण्ड के सामने लगे जंगले के बाहर लोग देवी के दर्शन करते हैं | इस तीर्थ के दर्शन करने युगों-युगों से कई योगी तथामहापुरुष कश्मीर आये हैं | कहते हैं कि रावण को जब इस बात का पता चला कि महाराज्ञी उसके दुर्व्यवहार से रुष्ट हो गयी है तो वे क्षमायाचना के लिए यहाँ आये किन्तु तब तक महाराज्ञी जलकुण्ड में ही समा गयी थी|राजतरंगगिणी के कई तरंगों में हमें भारत से आये कई योगीजनों का उल्लेख मिलता है जिन्होंने इस तीर्थ पर आकर महाराज्ञी के प्रति अपनी श्रद्धा के फूल अर्पित किये | कल्हण ने इस तीर्थ को कश्मीर की काशी कहा है | सन १८६८ ई में जब स्वामी विवेकानन्द कश्मीर आये तो इन्होंने अपनी यात्रा के अधिकांश दिन महाराज्ञी के चरणों में व्यतीत किये | यहाँ पर वे भाव-समाधि में लीन हो जाते थे | अपनी कई रचनाओं में इन्होंने इस सुरम्य तीर्थ की भूरि-भूरि प्रशंसा की है | इनकी विदेशी शिष्या भगिनी निवेदिता ने भी अपनी पुस्तकों में इसका उल्लेख किया है | यों तो प्राय: प्रतिदिन महाराज्ञी के दर्शनार्थ देश के कोने-कोने से यात्रियों का तांता बंधा रहता है, किंतु प्रतिवर्ष ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की अष्टमी को यहाँ भक्तजन काफ़ी मात्रा में आते हैं | जयेष्ठ शुक्ल पक्ष अष्टमी को, जो क्षीरभवानी के जन्म-दिवस के रूप में मनाया जाता है,यहाँ विशेष मेला भरता है| जलकुण्ड में अर्पित दूध तथा पुष्प आदि की सुगंध से मन में अपूर्व शान्ति का संचार होता है|देवी जगदम्बा के भजनकीर्तन रातभर चलते हैं | इस मंदिर के बाहर सदियों से भाईचारे का माहौल देखने को मिलता है| मंदिर में चढ़ने वाली पूजा-अर्चना,दूध-मिश्री आदि सामग्री इलाके के स्थानीय मुस्लिम बिरादरी के लोग बेचते हैं जो भाईचारे का एक बहुत बड़ा उदाहरण है।सामग्री बेचने वाले शौकत का कहना है कि उनके वालिद साहब भी श्रधालुओं के लिए पूजा का सामान बेचने का काम करते थे।उनका कहना है कि हमारे बीच हिंदु-मुस्लिम वाली कोई बात थी नहीं| मगर क्या करें? वक्त खराब आया कि हमारे कश्मीरी पंडित भाइयों को यहां से जाना पड़ा। उम्मीद है कि जल्द ही कश्मीर में फिर से कश्मीरी पंडित हम लोगों के साथ अपने पुराने घरों में रहने आ जाएंगे।यों,माना यह भी जाता है कि बाबा अमरनाथ के शिवलिंग का पता भी सब से पहले एक स्थानीय मुस्लिम गडरिये को ही चला था| | |
*Raina,Shiben Krishen MA(Hindi&English),PhD;Professor/Writer; Born: April22,1942 Srinagar(J&K); Education: J&K,Rajasthan and Kurukshetra Univs;Head Hindi Dept.Govt Postgraduate College, Alwar;Sought voluntary retirement from Principalship and joined Indian Institute of Advanced Study,Rashtrapati Nivas, Shimla as Fellow to work on Problems of Translation(1999-2001). Publications: 14 books including Kashmiri Bhasha Aur Sahitya(1972), Kashmiri Sahitya Ki Naveentam Pravrittiyan(1973), Kashmiri Ramayan:Ramavtarcharit(1975 tr.from Kashmiri into Hindi), Lal Ded/Habbakhatoon-monographs tr.from English(1980), Shair-e-Kashmir Mehjoor(tr.1989); Ek Daur(Novel tr.1980) Kashmiri Kavyitriyan Aur unka Rachna Sansar(1996 crit); Maun Sambashan(Short stories 1999); Awards: Bihar Rajya Bhasha Vibagh, Patna 1983; Central Hindi Directorate 1972, Sauhard Samman 1990; Rajasthan Sahitya Academy Translation Award (1998) Bhartiya Anuvad Parishad Award(1999); Titles conferred:Sahityashri,Sahitya Vageesh, Alwar Gaurav, Anuvadshri etc. Address: 2/537(HIG) Aravali Vihar,Alwar 301001, India | |