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कौंसरनाग तीर्थ इतिहास और परंपरा Dr, Agnishekhar
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यह कितने अफ़सोस की बात है कि धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक भारत में कश्मीरी पंडितों को पहले अपनी मातृभूमि से धर्म के आधार पर पाकिस्तान समर्थित जिहादी और अलगाववादी शक्तियों ने बेदखल किया , उन्हें जीनोसाइड का शिकार बनाया , उनके बारे में झूठ फैलाया , उनके शैक्षणिक, धार्मिक और सांस्कृतिक संस्थानों को हथियाने या उनके बारे में विवाद खड़े करने की साज़िश को परवान चढ़ाया। उनके धार्मिक स्थलों के नाम बदले। जैसे शंकराचार्य पर्वत को तख़्त-ए -सुलेमान ,श्री शारिका (हारी ) पर्वत को कोह - ए - मारान करने तक ही दम नहीं लिया , बल्कि सम्राट अशोक द्वारा बसाई श्रीनगरी (वर्तमान श्रीनगर) का नाम शहर-ए -ख़ास कर दिया। अभी हाल ही में स्वामी अमरनाथ यात्रियों पर सुनियोजित हमलों ,करीब 150 यात्री लंगरों को जला डालने ,बच्चों ,महिलाओं सहित सभी यात्रियों की बेरहमी से धुनाई के बाद विश्व प्रसिद्द खीरभवानी तीर्थ पर सामूहिक हमले के बाद अब कौंसरनाग विष्णुपाद यात्रा का विरोध ही नहीं , बल्कि उसके लिए सरकारी अनुमति दिए जाने के बाद हुर्रियत नेता अलीशाह गीलानी के 2 मई को कश्मीर बंद के ऐलान और भड़काई गई हिंसा के दबाव में रद्द किया गया। कश्मीरी पंडितों को अहरबल के पारम्परिक रास्ते से कौंसरनाग विष्णुपाद यात्रा करने से रोकने के लिए कभी पर्यावरण संरक्षण का तर्क दिया गया ,कभी यहाँ कश्मीरी हिन्दुओं के हज़ारों वर्ष पुराने तीर्थ होने के तथ्य को ही झुठलाया गया , कभी कौंसर (नाग) को अरबी मूल का शब्द कहकर वहां मस्जिद बनाये जाने की बात कही गयी और कभी इस विष्णुपाद कौंसरनाग की यात्रा की प्राचीन परंपरा को ही निराधार घोषित किया गया। अब यह बताया जा रहा है कि कौंसरनाग विष्णुपाद यात्रा का पारम्परिक मार्ग कुलगाम ज़िले से न होकर कश्मीर घाटी से 300 किलोमीटर दूर जम्मू जाकर वहां से 64 किलोमीटर दूर रियासी पहुँचने पर आगे की चढ़ाई पहाड़ी मार्ग से तय करनी है। अर्थात कश्मीर घाटी के आपको अगर कौंसरनाग विष्णुपाद यात्रा करनी हो , तो उसे बजाय एक दिन के चार दिन लगाकर जम्मू से होते हुए रियासी जाना होगा। कौंसरनाग विष्णुपाद कश्मीर घाटी के दक्षिण में पीर पांचाल पर्वत - श्रंखला के बीच शुपयन में स्थित कपालमोचन तीर्थ से से 34 की दूरी पर समुद्र तल से 12 हज़ार फ़ीट की ऊँचाई पर 5 किलोमीटर लम्बी और 3 किलोमीटर चौड़ी विशाल पाँव के आकार की एक विलक्षण झील है जिसके साथ मिथकीय आख्यान, इतिहास और लोक विश्वास जुड़े हुए हैं। इस तीर्थ का उल्लेख नीलमत पुराण , कल्हण की राजतरंगिणी जैसे प्राचीन ग्रंथों में तो है ही , इस का उल्लेख कश्मीर के महाराजा रणबीर सिंह के शासन काल में पंडित साहिब राम की पाण्डुलिपि ' तीर्थ संग्रह ' में भी है जिसमें कश्मीर के प्रसिद्द 365 तीर्थों के बारे में जानकारी मिलती है। यह पाण्डुलिपि अभी तक अप्रकाशित है और भंडारकर यूनिवर्सिटी में सुरक्षित है। नीलमतपुराण के अनुसार कौंसरनाग विष्णुपाद झील के इर्द - गिर्द बानिहाल के पश्चिम में तीन ऊंचे -ऊंचे पर्वत शिखर हैं जिन्हे ब्रह्मा ,विष्णु और महेश गिरि के नाम से चिन्हित किया गया है। इन तीनों में से पश्चिम की ओर जो सबसे ऊंचा शिखर है उसे 'नौ बंधन ' कहा जाता है , जो की नीलमत पुराण के अनुसार शंकर शिखर है। जल प्रलय के समय मनु की नौका हवा पानी तूफ़ान के थपेड़े खाते खाते यहीं जा लगी थी। यहीं पर विष्णु ने मत्स्य अवतार धारण कर अपनी पीठ से मनुष्यता के बीज लिए मनु की नौका को धकिया कर पर्वत से जा लगाया था और मनु ने इसी शिखर से उसे बाँधा था। मनुष्यता के बीज लिए जिस नौका को मनु ने नौबंधन से बाँधा वह नौका वास्तव में सती थीं जिसने जलप्लावन के बाद कश्मीर की धरती के रूप में सतीसर को धारण किया। अर्थात शिव ने सती को अपने साथ बांधा। इसी आख्यान को ध्यान में रखकर महाभारत युद्ध से पूर्व कश्मीर प्रवास के दौरान श्री कृष्ण ने कश्मीर की प्रशंसा में इस भूमि को साक्षात पार्वती का रूप कहा था। परंपरा रही है कि तीर्थ यात्री विष्णुपद कौंसरनाग के अत्यंत ठंडे जल में स्नान करने के बाद कौंसरनाग पूजा करते। फिर ब्रह्म गिरि , जहाँ क्षीरसर होने की बात भी कही जाती है विष्णु गिरि , महेश गिरि तथा पापों का निवारण करने वाले नौबंधन की भी पूजा अर्चना की जाती। देखा जाये तो अपने देश में विष्णुपाद एकाधिक स्थानों पर हैं और यह परंपरा प्राचीन कालिक है। क्रमसरनाग को विष्णुपाद कहे जाने की एक अन्य कथा भी प्रचलित है। सतीसर अथवा सतीदेश के नाग जलोद्भव नामक दैत्यराज संग्रह के पुत्र जलोद्भव के अत्याचारों से मुक्ति पाने के लिए अपने पिता कश्यप ऋषि के पास गए जो कि उस समय कनखल (हरद्वार) में थे। कश्यप ऋषि अपने बेटे नीलनाग के नेतृत्व में आये नागों के प्रतिनिधि मंडल को लेकर शिव और विष्णु के पास ले गए। फिर देवसेनाएं सतीदेश की ओर कूच करती हैं। सतीसर पहुँचने पर देवता अपने अपने मोर्चे संभालते हैं। कौंसरनाग के किनारों पर खड़े उत्तुंग पर्वतों पर ब्रह्मा , विष्णु तथा शिव ने युद्ध के लिए मोर्चा संभाला। जलोद्भव को ब्रह्मा से सतीसर की अपार जलराशि में छिपने का भी वरदान मिला था। इसलिए विष्णु ने अनंत को लांगुल से वराहमूल (वर्तमान बारामुला ) के पास पर्वत काटने को कहा। परिणाम स्वरुप सतीसर की जलराशि का निकास हुआ तो जलोद्भव को मार गिराने के लिए विष्णुगिरि से जब हरि ने अपना पाँव पर्वत के बीच क्रमस्थ किया अर्थात आगे बढाकर स्थित किया और उससे क्रमसर (नाग) बना जो कालान्तर में कौंसर(नाग) बना। यह तो कौंसरनाग की बात हुई। अब नन्दीमर्ग के निकट एक गाँव है कौंसरबल है , उसका क्या सम्बन्ध है या हो सकता है कौंसरनाग साथ। प्रसंगवश बताता हूँ कि कौंसरनाग यात्रा के दौरान श्री मोहन निराश ने अपने अपार लोकप्रिय रेडियो कार्यक्रम 'प्रगाश' के लिए कुछ जानकार लोगों के साक्षात्कार लिए थे ,जिनमें कश्मीर सम्बन्धी प्राचीन पांडुलिपियों के ज्ञाता पंडित दीनानाथ यछ से भी थे। मुझे याद है पंडित दीनानाथ यछ ने दोनों तीर्थों का अंतर समझाते हुए कहा था कि कौंसरनाग विष्णुपाद है जबकि कौंसरबल गाँव जबकि विशुद्ध रूप से क्रम से जुड़ा प्राचीन क्रमेश्वर बल है। जब 1981 में मैंने पहली बार कौंसरनाग विष्णुपाद की यात्रा की, मैं सौभाग्यशाली था कि मेरे साथ प्रसिद्द भाषा वैज्ञानिक और भारतविद डॉ टी एन गंजू ,विख्यात रेडियो निदेशक के के नैयर , प्रतिष्ठित ब्रॉडकास्टर,कवि और अनुवादक मोहन निराश और महर्षि महेश योगी के श्वेत वस्त्रधारी घने काले लम्बे केश और दाढ़ी वाले तेजस्वी शिष्य मोती लाल ब्रह्मचारी यात्रा में साथ थे । जब हमने कौंसरनाग के तीनों उत्तुंग शिखरों में सबसे ऊंचे शिखर 'नौ बंधन ' को विस्मय से देखा, तो हम देखते ही रह गए। निराश जी ने मुझसे भावुक मुद्रा में पूछा था ,'' जयशंकर प्रसाद की कोई कविता तो नहीं याद आ रही तुमको ?' संयोगवष हम सभीने 'कामायनी' पढ़ थी। उनके पूछने भर की देर थी कि मैंने और डॉ गंजू साहिब ने छूटते ही 'कामायनी' के पहले सर्ग से वाचन शुरू किया था : ' हिम गिरि के उत्तुंग शिखर पर बैठ शिला की शीतल छाँह। एक पुरुष भीगे नयनों से देख रहा था प्रलय प्रवाह।। मुझे याद है कि फिर कुछ देर वरिष्ठ हिंदी कवि अज्ञेय की चर्चा चल निकली थी। उनके कौसरनाग संस्मरण की। 'अरे ,ओ यायावर रहेगा याद --' उसके बाद नीलमत पुराण और कल्हण की राजतरंगिणी के सन्दर्भ दे देकर गंजू साहिब और मोहन निराश ने कौंसर नाग के मिथक, उसके रास्ते में पड़ने वाले अहिनाग (पवित्र जल कुण्ड ) और महिनाग (पवित्र जल कुण्ड ) से संबंधित किंवदंतियां ही नहीं सुनाईं थीं बल्कि उनकी समकालीन सन्दर्भों में भी अपनी तरह की व्याखाएं भी की थीं। मुझे पहली बार तभी पता चला था कि कौंसरनाग शब्द वास्तव में मूल संस्कृत शब्द ' क्रमसर नाग ' का अपभ्रंश है और कश्मीर में त्रिक सम्प्रदाय , भट्टारिका सम्प्रदाय , कुल सम्प्रदाय आदि की तरह ही क्रम संप्रदाय भी प्रचलन में रहा है। कश्मीर में शिव का एक नाम ' क्रमेश्वर ' भी है। इस विष्णुपाद कौंसरनाग में क्रमेश्वर का वास होने से लोग यहाँ प्रति वर्ष विशेषकर भाद्रमास की शुक्ल एकादशी , आषाढ़ पूर्णिमा और नाग पंचमी को आकर पूजा अर्चना ,श्राद्ध अथवा पितरों का तर्पण किया करते थे। कुछ लोगों की मान्यता है कि इस जल में कौण्डिन्यनाग का भी वास है जो वैसे किसी साक्ष्य के अभाव में सर्वमान्य नहीं। यहाँ पुंछ और रियासी के मुस्लिम गुज्जरों और बकरवालों में बकरे की बलि चढ़ाने की भी परंपरा रही है। वे यहाँ अपने रेवड़ के साथ आकर क्रमसरनग के बीच में बलि चढ़ाये बकरे या भेड़ के सर को श्रद्धा से विसर्जित करते हैं । ज़ाहिर है ये उनके इस्लाम धर्म में जाने के पूर्व की परंपरा है जिसे वो बचाये हुए हैं। कौंसरनाग की पारम्परिक यात्रा के दौरान शुपयन के पास कपालमोचन तीर्थ के पूजापाठी ब्राह्मण यात्रियों के साथ हो लेते थे। बारामुला और श्रीनगर से आने वाले यात्री कपालमोचन या अविल गाँव में पड़ाव डालते और अनंतनाग ज़िले के यात्री कूलवागेश्वरी (कुलगांव) में। डॉ त्रिलोकी नाथ गंजू के अनुसार शुपयन के निकटवर्ती परगोच गाँव के एक बहु पठित पुजारी मोहनलाल के पास कौंसरनाग का माहात्म्य भी हुआ करता था। उस माहात्म्य के अनुसार कौंसरनाग विष्णुपाद यात्रा करने वाले यात्री को वही फल मिलते हैं जो अमरेश्वर (स्वामी अमरनाथ ) की यात्रा करने वाले को प्राप्त होते हैं। इस तरह कपालमोचन तीर्थ ( शुपयन ) से होकर या कुल वागेश्वरी (कुलगाम ) से होते हुए अहरबल प्रपात जिसका नाम नीलमतपुराण (श्लोक 282 ) में 'अखोरबिल ' कहा गया है जिसका अर्थ मूषक - बिल होता है जिस से विशोका नदी ठीक वैसे ही निकली बताई गयी है जैसे भागीरथी गंगा जह्नु ऋषि के मुंह से निकलने पर जाह्नवी कहलाती है। इसके पश्चात कोंगवटन ( कुंकुम वर्तन )की मनोरम उपत्यका में रात गुजारने के बाद सुबह मुंह अँधेरे अहिंनाग और महिनाग को पीछे छोड़ते हुए हम विष्णुपद तक की चढ़ाई चढ़कर बर्फानी जल से झिलमिल कौंसरनाग के दर्शन करते हैं। शब्दातीत दृश्य। अलौकिक झील। मीलों लम्बी -चौड़ी इस सुरम्य झील के पानी पर छोटे छोटे हिमखंड दूर से राजहंसों की तरह लगते है। डॉ गंजू ने हमें विष्णुपाद की पश्चिम दिशा में उस मुहाने के पास धीरे धीरे उतरने को कहा जहाँ से कौंसरनाग से विशोका नदी निकलती है। मुझे याद है यहीं पर फर्फीले जल में हमने स्नान किया था। पूजा की थी। किंवदंती है की यहीं पर कश्यप ऋषि ने सतीसर की विशाल जलराशि के निकास के उपरान्त कश्मीर घाटी के लोगों के कल्याण के लिए लक्ष्मी की पूजा की थी। इससे पूर्व कश्यप ऋषि ने श्वेतद्वीप में साधना की। कश्यप ऋषि की प्रार्थना से द्रवित होकर लक्ष्मी विशोका नदी ( कश्मीरी में वेशव ) रूप में कौंसरनाग से बहार आयीं। उसके साथ अहिनाग और महिनाग भी चल लिए। अर्थात इन दोनों पवत्र कुंडों का जल भी विशोका में जा मिला। विशोका कौण्डिन्य नदी , क्षीर नदी और वितस्ता में जा मिलतीं है। यहीं इसी विष्णुपाद कौंसरनाग के पश्चिमी मुहाने पर सविनय हाथ जोड़कर कश्यप ऋषि देवी विशोका की स्तुति करते हैं -'' हे माता लक्ष्मी , तुम इन कश्मीर हो ! तुम्हीं उमा के रूप में प्रतिष्ठित हो !तुम ही सब देवियों में विद्यमान हो ! तुम्हारे जल से स्नान आने पर पापी भी मोक्ष पाते हैं। ' नीलमत पुराण का गहन अध्ययन करने पर पता चलता है कि कश्मीर घाटी में प्राचीनकाल से उत्सवों और यात्राओं की साल भर धूम रहती रही है। ऐसी वार्षिक यात्राओं में कौंसरनाग यात्रा भी कोई अपवाद नहीं है। कश्मीर की आदि नेंगी ललद्यद चौदहवीं शताब्दी में अपने एक लालवाख में क्रमसर नाग का उल्लेख करती हैं जिससे इसके माहात्म्य का साहियिक सन्दर्भ सामने आता है। ललद्यद् अपने पूर्वजन्मों की स्मृति की बात करते हुए कहती हैं क़ि उसे से तीन बार सरोवर ( सतीसर ) को जलप्लावित रूप में देखने की याद है। एक बार सरोवर को मैंने गगन से मिले देखा। एक बार हरमुख (शिखर) को क्रमसर ( शिखर) से जुड़ा एक सेतु देखा। सात बार सरोवर को शून्याकार होते देखा। जो अलगाववादी आज यह कहने लगे हैं कि उन्होंने कभी कौंसरनाग यात्रा होते नहीं देखी है , इससे बड़ा झूठ कुछ नहीं हो सकता। जिहादी आतंकवादियों और अलगाववादियों ने 1990 में जब कश्मीर से वहां के मूल बाशिंदों को ही जबरन जलावतन किया , जो कि कश्मीरी पंडित थे , स्वामी अमरनाथ की यात्रा छोड़ के बाकी सभी यात्राये प्रभावित रहीं हैं। क्या ऐसे जिहादियों को बताने की ज़रुरत है की मुगलों के शासनकाल में लगभग तीन सदियों तक कौंसरनाग यात्रा प्रतिबंधित रही है। रही बात इस यात्रा से पर्यावरण प्रदूषित होगा , इससे बचकाना और बनावटी तर्क कोई नहीं हो सकता है। अभी कुछ वर्ष पहले मुग़ल रोड के निर्माण के दौरान हज़ारों हज़ार पेड़ बिना किसी चूं - चपड़ के काटे गए , डल झील को मौत के कगार पर पहुंचाया गया , चिनार काट डाले गए , जंगलों का सफाया किया गया, हज़ारों हाउसबोटों का मल - मूत्र डल में निर्बाध जा रहा है। आचार झील और विश्व प्रसिद्द वुल्लर झील की दयनीय हालत पर कोई अलगाववादी नेता ,आतंकवादी सरगना बयान नहीं देता ,कश्मीर बंद का आह्वान नहीं करता। कौंसरनाग विष्णुपाद की यात्रा की इजाज़त देने से कश्मीर की मुस्लिम अस्मिता खतरे में पड़ने वाली है , ऐसा भी खुलम खुल्ला कहा जा रहा है। |
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