![]() अनुवाद का सौन्दर्य शिबन कृष्ण रैणा
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अनुवाद को मौलिक सृजन की कोटि में रखा जाए या नहीं, यह बात हमेशा चर्चा का विषय रही है। अनुवाद-कर्म में रत अध्यवसायी अनुवादकों का मत है कि अनुवाद दूसरे दरजे का लेखन नहीं, बल्कि मूल के बराबर का ही सृजनधर्मी प्रयास है। बच्चन जी के विचार इस संदर्भ में द्रष्टव्य हैं- ‘मैं, अनुवाद को, यदि वह मौलिक प्रेरणाओं से एकात्म होकर किया गया हो, मौलिक सृजन से कम महत्त्व नहीं देता। अनुभवी ही जानते हैं कि अनुवाद मौलिक सृजन से भी अधिक कितना कठिन-साध्य होता है! मूल कृति से रागात्मक संबंध जितना अधिक होगा, अनुवाद का प्रभाव उतना ही बढ़ जाएगा। दरअसल, सफल अनुवादक वही है जो अपनी दृष्टि भावों, कथ्य और आशय पर रखे। साहित्यानुवाद में शाब्दिक अनुवाद सुंदर नहीं होता। एक भाषा का भाव या विचार जब अपने मूल भाषा-माध्यम को छोड़ कर दूसरे भाषा-माध्यम से एकात्म होना चाहेगा, तो उसे अपने अनुरूप शब्दराशि संजोने की छूट देनी ही होगी। यहीं पर अनुवादक की प्रतिभा काम करती है और अनुवाद मौलिक सृजन की कोटि में आ जाता है।’ दरअसल, अनुवाद एक श्रमसाध्य और कठिन रचना-प्रक्रिया है। वह मूल रचना का अनुकरण-मात्र नहीं, बल्कि पुनर्जन्म होता है। वह द्वितीय श्रेणी का लेखन नहीं, मूल के बराबर का ही दमदार प्रयास है। इस दृष्टि से मौलिक सृजन और अनुवाद की रचना-प्रक्रिया आमतौर पर एक समान होती है। दोनों के भीतर अनुभूति पक्ष की सघनता रहती है। अनुवादक जब तक मूल रचना की अनुभूति, आशय और अभिव्यक्ति के साथ तदाकार नहीं हो जाता, तब तक सुंदर और पठनीय अनुवाद की सृष्टि नहीं हो पाती। इसलिए अनुवादक में सृजनशील प्रतिभा का होना अनिवार्य है। मूल रचनाकार की तरह अनुवादक भी कथ्य को आत्मसात करता है, उसे अपनी चित्तवृत्तियों में उतार कर फिर से सृजित करने का प्रयास करता है और अपने अभिव्यक्ति-माध्यम के उत्कृष्ट उपादानों द्वारा उसे एक नया रूप देता है। इस सारी प्रक्रिया में अनुवादक की सृजन प्रतिभा मुखर रहती है। अनुवाद में अनुवादक की प्रतिभा के महत्त्व को सभी अनुवाद-विज्ञानियों ने स्वीकार किया है। इसी कारण अनुवादक को एक सर्जक ही माना गया है और उसकी कला को सर्जनात्मक कला। इस संदर्भ में फिट्जेराल्ड द्वारा उमर खैयाम की रुबाइयों के अनुवाद को देखा जा सकता है। विद्वानों का मानना है कि यह अनुवाद खैयाम की काव्य-प्रतिभा की अपेक्षा फिट्जेराल्ड की निजी प्रतिभा का उत्कृष्ट नमूना है। खुद फिट्जेराल्ड ने अपने अनुवाद के बारे में कहा है कि एक मरे हुए पक्षी के स्थान पर दूसरा जीवित पक्षी अधिक अच्छा है (मरे हुएबाज की अपेक्षा एक जीवित चिड़िया ज्यादा अच्छी है)। कहना वे यह चाहते हैं कि अगर मैंने रूबाइयों का शब्दश: या यथावत अनुवाद किया होता तो उसमें जान न होती, वह मरे हुए पक्षी की तरह प्राणहीन या निर्जीव होता। अपनी प्रतिभा उड़ेल कर फिट्जेराल्ड ने रूबाइयों के अनुवाद को प्राणमय और सजीव बना दिया है। अनुवाद के अच्छे या बुरे होने को लेकर कई तरह की भ्रांतियां प्रचलित हैं। आरोप लगाया जाता है कि मूल की तुलना में अनुवाद अपूर्ण रहता है, अनुवाद में मूल के सौंदर्य की रक्षा नहीं हो पाती, अनुवाद दोयम दरजे का काम है, आदि। अनुवाद-कर्म पर लगाए जाने वाले ये आरोप मुख्य रूप से अनुवादक की अयोग्यता के कारण हैं। अनुवाद में मूल भाव-सौंदर्य और विचार-सौष्ठव की रक्षा तो हो सकती है, पर भाषा-सौंदर्य की रक्षा इसलिए नहीं हो पाती, क्योंकि भाषाओं में रूप-रचना और प्रयोग की रूढ़ियों की दृष्टि से भिन्नता होती है। इसलिए मूल-भाषा जैसी स्वाभाविकता या मधुरता अनुवाद में नहीं आ पाती। सही है कि मौलिक लेखन के बाद ही अनुवाद होता है, इसलिए निश्चित रूप से वह क्रम की दृष्टि से दूसरे स्थान पर है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि गुणवत्ता की दृष्टि से भी वह दूसरे स्थान पर है। जिस प्रकार मौलिक लेखन बढ़िया हो सकता है और घटिया भी, उसी प्रकार अनुवाद भी। आरोपों से अनुवाद-कार्य का महत्त्व कम नहीं होता। सच पूछा जाए तो अनुवादक का महत्त्व इस रूप में है कि वह दो भाषाओं को न केवल जोड़ता है, बल्कि उनमें संजोई ज्ञानराशि को एक-दूसरे के निकट लाता है। अनुवादक अन्य भाषा की ज्ञान-संपदा को लक्ष्य भाषा में अंतरित करने में शास्त्रीय ढंग से कहां तक सफल रहा है, यह उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है, जितना दूसरी भाषा के पाठकों का अनुवाद द्वारा एक नई कृति से परिचित होना। मूल रचना का स्वल्प परिचय पूर्ण अज्ञान से बेहतर है। गेटे की पंक्तियां यहां उद्धृत करने योग्य हैं, जिनमें उन्होंने कार्लाइल को लिखा था-‘अनुवाद की अपूर्णता के बारे में तुम चाहे कुछ भी कहो, पर सच्चाई यह है कि संसार के व्यावहारिक कार्यों के लिए उसका महत्त्व असाधारण और बहुमूल्य है।’ यानी यह अनुवादक की निजी भाषिक क्षमताओं, लेखन-अनुभव और प्रतिभा पर निर्भर है कि उसका अनुवाद कितना सटीक, सहज और सुंदर बन पाया है। मेरा मानना है कि एक अच्छे अनुवादक के लिए एक अच्छा लेखक होना भी बहुत जरूरी है। एक अच्छा लेखक होना उसे एक अच्छा अनुवादक बनाता है। | |
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![]() Born: April22,1942 Srinagar(J&K); Education: J&K,Rajasthan and Kurukshetra Univs;Head Hindi Dept.Govt Postgraduate College, Alwar;Sought voluntary retirement from Principalship and joined Indian Institute of Advanced Study,Rashtrapati Nivas, Shimla as Fellow to work on Problems of Translation(1999-2001). Publications: 14 books including Kashmiri Bhasha Aur Sahitya(1972), Kashmiri Sahitya Ki Naveentam Pravrittiyan(1973), Kashmiri Ramayan:Ramavtarcharit(1975 tr.from Kashmiri into Hindi), Lal Ded/Habbakhatoon-monographs tr.from English(1980), Shair-e-Kashmir Mehjoor(tr.1989); Ek Daur(Novel tr.1980) Kashmiri Kavyitriyan Aur unka Rachna Sansar(1996 crit); Maun Sambashan(Short stories 1999); Awards: Bihar Rajya Bhasha Vibagh, Patna 1983; Central Hindi Directorate 1972, Sauhard Samman 1990; Rajasthan Sahitya Academy Translation Award (1998) Bhartiya Anuvad Parishad Award(1999); Titles conferred:Sahityashri,Sahitya Vageesh, Alwar Gaurav, Anuvadshri etc. Address: 2/537(HIG) Aravali Vihar,Alwar 301001, India | |
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